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कविता

सलवा जुडूम

मदन कश्यप


हमने हत्या को सांस्कृतिक अनुष्ठान में बदल दिया है
कोई नहीं कह सकता इसे सत्ता का दमन
सरकारी उत्पीड़न
अब कंधे भी तुम्हारे हैं छातियाँ भी तुम्हारी
हम तो सिर्फ तुम्हारे नरमेध के पुरोहित हैं

इतिहास गवाह हैं कत्ल के उत्सव में
मंत्रोच्चार करनेवालों को कभी हत्यारा नहीं कहा गया

हम तुम्हें जंगल से भगाएँगे नहीं
तुम जहाँ जाओगे वहीं जंगल बस जाएगा

तुम बार-बार विस्थापित होते रहे हो
क्यों न इस बार हमेशा-हमेशा के लिए
नृजातीय प्रयोगशालाओं में संस्थापित हो जाओ

तुम्हारे घावों का दर्द जितना तेज होगा उतना ही
बढ़ेगा तुम्हारा गुस्सा और एक दिन यह
तुम्हारी बचीखुची चेतना पर भी छा जाएगा
तुम समझ ही नहीं पाओगे यह गुस्सा क्यों है किसके खिलाफ है

तुम में से कुछ थोड़े-से बच भी गए तो
जो तुम्हें देता रहा है माँ के आँचल-सी सुरक्षा और सुकून
उस जंगल की ओर झाँकने से भी डरोगे
उस पर होगा हमारा अधिकार
उसमें बेधड़क घूमेंगे सात समंदर पार के हमारे प्रिय सौदागर
कहीं से किसी तीर के सनसनाते हुए आने का कोई खतरा नहीं होगा!

(2008)

 


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